इलाहाबाद (शिखर समाचार) हाई कोर्ट ने बुधवार को एक महत्वपूर्ण आदेश पारित करते हुए रूपम कांतिलाल संघवी और मितुल नवनीत मेहता को बड़ी राहत दी है। एडवोकेट अपूर्व हजेला की पैरवी में दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति जे.जे. मुनीर और न्यायमूर्ति संजीव कुमार की खंडपीठ ने कहा कि याचीगण के खिलाफ दर्ज एफआईआर का विवाद मूलतः सिविल प्रकृति का है, जिसमें आपराधिक मामला बनता नहीं दिखता।
व्यापारिक विवाद को अपराध से जोड़ने की साज़िश: अपूर्व हजेला का जोरदार तर्क
अपूर्व हजेला ने अदालत के समक्ष दलील दी कि आगरा के सदर बाजार थाना क्षेत्र में दर्ज केस क्राइम नंबर 516/2025 की एफआईआर दरअसल व्यापारिक लेनदेन से जुड़ा एक भुगतान विवाद है, न कि कोई आपराधिक कृत्य। उन्होंने बताया कि माल की आपूर्ति के बाद भुगतान को लेकर मतभेद हुआ, जिसका उपाय सिविल कोर्ट में वसूली के मुकदमे के रूप में किया जा सकता है।
अदालत ने याचिका पर सुनवाई करते हुए माना कि एफआईआर की सामग्री से प्रथम दृष्टया यह स्पष्ट होता है कि विवाद वस्तुओं के मूल्य भुगतान को लेकर है और यह एक सिविल प्रकृति का मामला है। कोर्ट ने यह भी टिप्पणी की कि ऐसे मामलों को आपराधिक रंग देकर दर्ज करना कानून की भावना के विपरीत है।
सिविल मामले को अपराध क्यों माना? अदालत का अफसरों से दो टूक सवाल
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खंडपीठ ने पुलिस कमिश्नर आगरा और सदर बाजार थाना प्रभारी को नोटिस जारी करते हुए व्यक्तिगत हलफनामा दाखिल करने का आदेश करते हुए यह बताने को कहा कि आखिरकार इस तरह के सिविल विवाद को आपराधिक प्रकरण के रूप में दर्ज करने की क्या आवश्यकता पड़ी। अदालत ने दोनों से दो सप्ताह में जवाब दाखिल करने को कहा है और अगली सुनवाई 4 नवम्बर 2025 को तय की है।
सुनवाई के दौरान अदालत ने याचीगण के पक्ष में अंतरिम राहत देते हुए आदेश दिया कि रूपम कांतिलाल संघवी और मितुल नवनीत मेहता की गिरफ्तारी आगामी आदेशों तक नहीं की जाएगी। यह आदेश अदालत ने क्रिमिनल मिस. रिट पिटीशन नंबर 22554/2025 में पारित किया है।
कोर्ट का सख्त रुख: 48 घंटे में पहुंचाएं आदेश, सुनिश्चित हो समय पर अनुपालन
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कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि यह निर्देश 48 घंटे के भीतर पुलिस कमिश्नर आगरा, सहायक पुलिस आयुक्त सदर, आगरा कमिश्नरेट तथा सदर बाजार थाना प्रभारी को मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के माध्यम से भेजा जाए ताकि आदेश का अनुपालन समय पर सुनिश्चित हो सके।
अपूर्व हजेला ने सुनवाई के बाद कहा कि यह आदेश न्याय व्यवस्था में विश्वास को मजबूत करने वाला है और यह स्पष्ट संदेश देता है कि व्यापारिक लेनदेन को जबरन आपराधिक मामले का रूप नहीं दिया जा सकता। अदालत ने मामले की गंभीरता को समझते हुए उचित दिशा में न्यायिक दखल दिया है। हाई कोर्ट का यह आदेश उन व्यापारिक विवादों के लिए भी मिसाल बन सकता है, जिनमें सिविल प्रकृति के मामलों को अनावश्यक रूप से आपराधिक धाराओं में परिवर्तित किया जाता है।