एक राष्ट्र, एक चुनाव : लोकतंत्र का नया प्रयोग या केंद्रीकरण की ओर एक कदम?

Rashtriya Shikhar
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One Nation One Election. IMAGE CREDIT TO PP CHAUDHARY A/C

नई दिल्ली (शिखर समाचार)
देश की संसद में इन दिनों एक राष्ट्र, एक चुनाव (One Nation, One Election – ONOE) को लेकर चर्चाएं गर्म हैं। हाल ही में संसद की संयुक्त समिति के समक्ष देश के दो पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जे.एस. खेहर और जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ ने इस प्रस्तावित बिल पर अपनी राय रखते हुए कई गंभीर पहलुओं को सामने रखा। एक ओर जहां उन्होंने इस विचार को संविधान के मूल ढांचे के अनुरूप बताया, वहीं दूसरी ओर उन्होंने इसमें निहित कुछ संवैधानिक और व्यावहारिक जोखिमों की ओर भी इशारा किया।

एक राष्ट्र, एक चुनाव का विचार भारत की संसदीय प्रणाली में स्थायित्व लाने के उद्देश्य से सामने आया

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दरअसल एक राष्ट्र, एक चुनाव का विचार भारत की संसदीय प्रणाली में स्थायित्व लाने के उद्देश्य से सामने आया है। लेकिन जब इस पर विधि विशेषज्ञ और पूर्व मुख्य न्यायाधीश ही सवाल उठाते हैं, तो यह ज़रूरी हो जाता है कि इन सवालों को गंभीरता से समझा जाए।

जस्टिस चंद्रचूड़ ने समिति को बताया कि संविधान में सरकार की अधिकतम अवधि तो निर्धारित है, लेकिन न्यूनतम अवधि की कोई गारंटी नहीं है। सरकारें विश्वास मत हारकर कभी भी गिर सकती हैं और यदि सभी चुनाव एक साथ कराने की बाध्यता होगी, तो इससे संकट की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। सवाल यह भी उठता है कि यदि किसी राज्य की विधानसभा समय से पहले भंग हो जाए या वहां राष्ट्रपति शासन लागू हो जाए, तो क्या लोकसभा चुनावों के साथ उस राज्य में भी चुनाव होंगे?

प्रस्ताव में चुनाव आयोग को दी गई शक्तियों पर भी दोनों न्यायाधीशों ने चिंता जताई

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इस प्रस्ताव में चुनाव आयोग को दी गई शक्तियों पर भी दोनों न्यायाधीशों ने चिंता जताई। प्रस्तावित बिल में चुनाव आयोग को यह अधिकार दिया गया है कि वह विशेष परिस्थितियों में चुनावों को स्थगित करने या पुनर्निर्धारित करने का निर्णय ले सकता है। जस्टिस खेहर ने इस बिंदु को संविधान की आत्मा के विपरीत बताया और कहा कि किसी संवैधानिक संस्था को इतने व्यापक अधिकार देना लोकतांत्रिक संतुलन को प्रभावित कर सकता है।

इसके अतिरिक्त यह सवाल भी प्रमुखता से उठा कि क्या एक साथ चुनाव कराने से क्षेत्रीय मुद्दे हाशिए पर नहीं चले जाएंगे? जस्टिस चंद्रचूड़ ने इस पर संकेत देते हुए कहा कि भाषाई, सांस्कृतिक और स्थानीय सरोकार जिनका असर आम जनता पर सीधा पड़ता है, वे कहीं राष्ट्रीय विमर्श में दब न जाएं। हालांकि उन्होंने यह भी जोड़ा कि यह संभावना भी है कि कुछ क्षेत्रीय मुद्दे राष्ट्रीय पटल पर अधिक गूंज पाएं।

बिल के मसौदे में कई व्यवहारिक परिस्थितियों को लेकर कोई स्पष्टता नहीं दी गई है जैसे यदि किसी राज्य की सरकार दो महीने पहले ही गिर जाए तो क्या किया जाएगा? क्या ऐसे राज्यों में दो महीने के लिए अंतरिम सरकार बनेगी या राष्ट्रपति शासन लगाया जाएगा? इन प्रश्नों के उत्तर न होना इस प्रस्ताव को कमजोर बनाता है।

इसके लिए जल्दबाजी की जगह ठोस और विस्तृत तैयारी की आवश्यकता

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पूर्व न्यायमूर्तियों का मत है कि यह प्रस्ताव एक बड़ा और ऐतिहासिक अवसर है, लेकिन इसके लिए जल्दबाजी की जगह ठोस और विस्तृत तैयारी की आवश्यकता है। चुनाव आयोग की भूमिका को पुनः परिभाषित करना, संवैधानिक संतुलन बनाए रखना और सभी राज्यों की भिन्न-भिन्न राजनीतिक परिस्थितियों का सम्मान करना बेहद आवश्यक होगा।

फिलहाल यह प्रस्ताव जहां एक ओर संसाधनों की बचत, बार-बार की चुनावी गतिविधियों से उत्पन्न अराजकता और खर्च को कम करने की बात करता है, वहीं दूसरी ओर लोकतंत्र की जड़ों से जुड़ी विविधताओं, प्रतिनिधित्व की भावना और संघीय ढांचे पर असर डालने वाले कई सवाल भी खड़े करता है।

अब यह देखना बाकी है कि सरकार इस प्रस्ताव को किस तरह आगे बढ़ाती है क्या यह भारत के लोकतंत्र को और अधिक सशक्त बनाएगा या फिर शक्ति के केंद्रीकरण की ओर एक नया रास्ता खोल देगा? जवाब आने वाला वक्त देगा, लेकिन चेतावनी स्पष्ट है लोकतंत्र में निर्णय से पहले मंथन ज़रूरी है।

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